क्यो धरता ऊँची आस ?

              (तर्ज : हे नरा अंत बघ जरा...)
क्यों धरता ऊँची आस ? कर्म नहीं पास, रहे उदास,
कहाँ सुख पाये ?
अरे, तुझको तो जमराज बुलाने आये ! ।।टेक।।
नहीं पढा कला ना गुण, रहा अवगुण , विषयकी धुन्द-
छायी है सरपे ।
जहा आलसी बना और घुमता है दर-दरपे ।।
नहीं मीठी मुखसे बात, सदा संगात, चोरकी जात,
साथ   ले   आवे ।
तब तुझको घर में कौन बिठाने जावे ? ?
(तर्ज)... नहीं सुबो धुलाता मुँहको ।
फैलाता तन बदबू   को ।
तुझे कौन पुकारे यहाँ, मरा भी कहाँ, पडा रहे वहाँ -
रोज नहीं न्हाये ।
अरे, तुझको तो जमराज बुलाने आये ।।१।।
गुस्सके मारे नूर, बिगड गया सूर, आँखें अनखूर -
लाल हैं   तेरी ।
सब बदन बना बेढंग की थैली पूरी ।।
यह टेढेटाढे बाल, भुसके लाल,दिखे बेताल, रहे अक्कडमें ।
खाता है पान तब बून्द पड़े कपडे में ।।
(तर्ज)     नहीं मिली संगती सत्‌की ।
जो मिले शराबी  मतकी ।
वाहवारे तेरा हाल, अजब बेताल, लगा है जाल -
छूट नहिं   पाये ।
अरे, तुझको तो जमराज बूलाने आये ! ।।२।।
कुछ समझ, बातको उमज, सिधा कर मगज,
सीख सद्गुणको ।
तब तर जायेगा, छोडेगा अवगुणको ।।
ले मुखसे प्रभुका नाम, घूम सत्‌-धाम, संतकी सेवा ।
सब पाप करेंगे, हरदम  बोले देवा ।।
(तर्ज)    ये देख जरा सज्जन को ।
कितना हे संभाला मनको ।
तुकड्या कहे - तू भी बन, ऊँच कर मन, न जाये क्षण,
भजन बिन - गाये ।
अरे, तुझको तो जमराज बुलाने आये ! ।।३।।