ओ ! भक्ती की ज्योति
(तर्ज : के निर्दयी प्रीतम...)
ओ ! भक्ती की ज्योति,मोह की मुक्ति !
दास बनाके, हमको, करो प्रचीती ।।टेक।।
हम हैं तेरी शरणांगत, निर्मल मनसे. होनेको रत ।
अब नहीं है अभिमान बदनका,निश्चयसे कहते हैं मत
ज्यादा समय न लगने दो, पल-पल बीती जाती ! ।।१।।
आज चढी है वृत्ति अखंड, कल क्या जाने होगा खंड ।
षडविकारकी झुंड॒ बढे तब, होगा आपसभमें ही बंड ।
इसीलिये करता हूँ अर्जी,गयी समय नहीं आती ! ।।२।।
बिना दर्शनके शान्ति नहीं ,शान्ति बिना गयी भ्रांति नहीं ।
बिना भ्रांति गये ये मनकी, कभू बनेगी क्रांति नहीं ! !
क्रांति बिना मन स्थीर न होता, है यह हमपर बीती ! ।।३।।
सुदर अवसर यह आया, प्रभुने हम पर किया दया ।
पशु-पक्षीका जन्म छुडाकर, यह मानवका तन पाया ।
तुकड्यादास कहे, यह साधन, छोडके होगी बुरी गती ! ।।४।।