ओ ! स्वर्गके गामी, अंतरयामी ?

      (तर्ज : जो निर्द्यी प्रीतम...)
ओ ! स्वर्गके   गामी, अंतरयामी ?
मोहे न भुलाओ,तुम हो मेरे स्वामी ! ।।टेक।।
मैं हूँ तुम्हारा  भक्ती - पतंग ।
फिर हो क्यों मेरा मन तंग ?
जंग नहीं ,यह विरहवान है-।
लगे   खुलेगा    रंग ।।
नेन लगेगी, नीर बहाने, हो प्रीत न बेकामी ।।आओ ! ।।१।।
झाड़ू   लगाऊँगा  द्वारे ।
अटल जगाऊँगा पहरे ।।
तुमरे मन आनन्द रहे सो -
काम करूँगा   में   सारे ।।
सखीको,खाकरकेमें-नाचुंगा निज धामी।। आओ ! ।। २।।
तुम्हरे भक्तों में   बल   हे ।
वो न करे किसके छल है ।।
उनको भाँता   जंगल   हे ।
पर मेरा तो मन चंचल हे ।।
मेहर नजर तो करदो अपनी -हो जाऊँगा प्रेमी ! ।। ओ ! ।।३।।
तुम्हरे चरणों की गंगा ।
रहेँ  उसीमें   में   चंगा ।।
न्हाऊँगा  मन धोऊँगा ।
नारे  भले   लगाऊँगा ।।
तुकड्यादास करो अब अपना,ले लोना हमरी हामी ।। ओ ! ।।४।।