डूब रहा है मानव धन ये
(तर्ज : छंद)
डूब रहा है मानव धन ये, दिन-दिन कृत्रिम होकरके ।
आततायी-सा रहने लगता, पेट मसाला भर -भरके ! ।।टेक।।
अस्तव्यस्त है खाना-पीना; रहना, सोना, प्रवास भी ।
शान्ति कहाँसे पावे तनमें,प्राकृत नहिं मिकता कुछ भी।
इन्द्रियलोलुपता के पीछे, मन भगता फिर तन भगता ।
पडता-झडता-उठता करता रहता है सारी सजता ।।
क्या करता हूँ, समझ नहीं है, भगनेके मारे इसको ।
साथी भी वैसेही मिलते, दवा-पानी लेलो - खसको ! ।।
पैसा-पैसा हुआ है सबमें, जैसा ब्रह्म सभीमें है ।
उससे खींचातानी होती, सारा काम कमी में है ।।
अतीधुन्द-सा भाग रहा है, जीवन करमें धर करके ।
आततायी-सा रहने लगता, पेट मसाला भर-भरके 0।।१।।
बिगड़ा जनवर, मार-मारकर उसे ठिकाने लाना है ।
वैसेही सुई टोच-टोचकर,इसका स्वास्थ्य जमाना है ।।
होगा क्या नहीं होगा जाने,डॉक्टर वेद्य -कम्पनियाँ ।
वो तो होगया आशक इनपर,गोली खिलाके है बनियाँ।
झटपट सुधरो, पथ्य न बोलो; सुई लगाओ लो पैसा ।
चलते ही मैं ठीक बनूँ, मुझे काम पडा भारी वैसा ।।
डॉक्टर भी अब बन रहे ऐसे, बिन जानेही देते सुई ।
थर्मामिटर मालूम नहीं है, ऐसे रोगी मरे कई ।।
जहाँ-वहाँ कालेज खोल दो, अर्ज भरो सरसर करके ।
आततायी-सा रहने लगता, पेट मसाला भर-भरके 0।।२।।
मगर देखना है ऐसा, क्या मानव-जीवन ठीक चला ?
चलते -फिरते देखो सबको,लगता टी.बी.द्वार खुला ।।
महारोग की बढती भारी, परमा - खुजली पीलि है ।
लाल-लाल है नैन युवक के, आँखे मुंहपर काली हैं ।।
वात-पित्त के उगले चट्टे, अंग बना सब खोका हैं ।
शक्ति नहीं, ना तेज बदनपर, मरनेका ही धोखा है ।।
साइकिल - मोटारोंपर दिखते, जैसे बन्दर भगते है ।
होश नहीं बातें करनेका, पल-पलमें ही भडकते है ।।
शासक कहते, दवा पिलाओ, हर खेडेमे जाकरके ।
आततायी-सा रहने लगता, पेट मसाला भर-भरके 0।।३।।
मुझको लगता नैसर्गिक ही, हो उपचार सुधरनेको ।
करो उपोषण, बाँधो पड़ी, मिट्टी से ठिक करनेको ।।
रसाहार और उबली सब्जी से ही सब कुछ चलता है ।
सारे व्यसन छूट जाते है,अनुभव से सुख मिलता है ।।
बडी औषधी,जल-मिट्टी और सूर्यप्रकाश की शक्ति है
घर-घरमें हो सकती दवाई, सब रोगोंकी मुक्ति हैं ।।
उरली - कांचनमें ही मैंने, देखा अनुभव लेकरके ।
मुझको तो सुख रहा यहाँपर,दस दिन पानीपर रहके।।
तुकड्यादास कहे-रहनेमें; नियम सिखाओ जी-भरके ।
भआततायी -सा रहने लगता, पेट मसाला भर-भरके 0।।४।।