जंगल - जंगल नाचूं रे मन

         (तर्ज : काहे को तीरथ जाता रे भाई...)
जंगल-जंगल नाचूं रे मन मै तो, जंगल -जगल नाचूं ।।टेक।।
हर दरखतमें श्याम की मूरत, हर पत्थर मेरी काशी ।
हर नदिका-जल गंगा हमारी,सबमें मेरा अविनाशी रे,
                  मैं तो जंगल-जंगल नाचूं0।।१।।
हर मानव मेरा ठाकुर बन्दे, हर महिला है भवानी ।
सब जग मेरा तीरथ भाई, लुटू सेवामें जवानी रे,
                 मैं तो जंगल -जंगल नाचूं0।।२।।
सबके संगमें प्रेम से बरतूं, सच्चा करूं व्यवहारा ।
तुकड्यादास कहे इसके बिना,किसको नहीं है किनारा रे,
                 मैं तो जंगल-जंगल नाचूं0।।३।।