कर्म करो आसक्त न होवो, अमर गीता की वाणी, कहे कृष्ण, पार्थ ! सुन ग्यानी ॥

(तर्ज : गावो भाई सब देवनको ... . )

कर्म करो आसक्त न होवो, अमर गीता की वाणी,
कहे कृष्ण, पार्थ ! सुन ग्यानी ॥टेक ।। 
घाँस न कहता, मुझे उगेंपर, कौन काटता आके ?
वृक्ष न कहता, क्यों तोडोगे?-जब मैनें दिन जागे ।।१॥
चिडियाँ अपना कर्म करे पर, खुद ही खोका छोडे।
नदी नीर बहता अपनेसे, मन चाहे निर मोडें       ।।२॥
तू मानव है समाज-हितको, अपना मोह कहाँसे ?
नीती, रीती, न्याय है जिसमें, तेरी खुशी उन्होंसे ।।३।।
हम अपनी गुण, ग्यान, कलाको; समाजहित को देते।
यहिं मानव का कर्म रहा है, जो बीते सो बीते !     ।।४॥
सभी सुखी हो तन-मन-धनसे; यहि चिन्तन करना है।
तुकड्यादास कहे लडनेसे,शान्ती हो तो लड़ना है।।५।