जो धन जगमें जीवन देता, उसको नहीं ऊपजाते ! कागज की दलाली करते ! ।
(तर्ज : हे दीन दयाधन, करुणा -सागर....)
जो धन जगमें जीवन देता, उसको नहीं ऊपजाते !
कागज की दलाली करते ! ।।टेक ।।
सब रत्नों में तीन रत्न है, अन्न, पानी और प्रीति।
मूरख तो पत्थर के टुकडो को समझे धन रीति ! ।।१॥
रुपये-पैसे का जो धन है, उसका मान नहीं है।
चोर लगे रहते है पीछे, सुनलो बात सही है ।।२॥
गुणी-जनोंका मान सभामें, होता इस कारण है।
सदाचार, चारित्र, कुशलता; फैलाता जीवन है ।।३॥
कोई पैसों की राशी, योग्य काममे लाता।
उसकी कीर्ति बेशक होती, उनसे अन्न उगाता ।।४।।
मगर आजके धनि -मानी तो, शराब -जारी करते !
चुनाव खातिर पानी-जैसे धन की धार बहाते ।।५॥
सरल जिन्दगी और सच्चापन,यहि मानव का बाणा है।
इसके अलावा ठगनेवाले, उनका नहीं ठिकाणा ।।६॥
यहाँ भले ही कुछ दिन उसने, दुनिया के रस भोगा।
तकड्यादास कहे आखिर वह,शान्ति नहीं पावेगा।।७।।