किसबिध ध्यान धँरु मैं तेरा ? चंचल मन नहीं रोकत मोसे

(तर्ज: बैष्णव जन तो तेने कहिये. )
किसबिध ध्यान धँरु मैं तेरा ? चंचल मन नहीं रोकत मोसे ।
बारबार धोखा कर मुझसे, विषयन के नित रहत भरोसे।।टेक।।
जप नहीं जानू, तप नहीं जानू । नहीं जानू मैं योगभी केसे ।
योंही अधम पडा हूँ दरपे । पार उतरने भवसागरसे ।।१।।
ग्यान न मुझमें, ध्यान न मुझमें । मुझे प्रेम भी प्रगटे कैसे ।
सद्नागुरुनाथ ! दयाबिनु तोरे, कौन सहायक बिकट सफरसे ।।२।।
कामकी ठिनगी क्रोधकी ज्वाला । मोह के बंधन जात न सोसे ।
तुकड्यादास कहे यह अरजी । पेश किया अंदर- बाहर से ।।३।।