इस शान्त,दान्त,निवान्त में निद्रा हमारी हो भली।। टेक॥
(तर्ज: हिन्दूभूच्या लेकरा...)
इस शान्त,दान्त,निवान्त में निद्रा हमारी हो भली।। टेक॥
रम्य यह अस्मान है, निर्मल हवा जीवनभरी।
दिव्य तारोंको निरखने, स्वर्गकी गलि हो खुली ।।1।।
चिंतना नहिं हो कोई, किसि विषयलंपट भावकी ।
वृत्ति हो खुदमें विलिन,जहाँ आत्मज्योती है जली।।2॥
कल्पना ना हो जगतकी, और इस स्थुल देहकी।
स्वस्थ हो मेरा हदय, गंभीर ज्यों गंगा चली ।।3॥
रक्षण करे हम आत्मका,उस तेजका अरु वीर्यका।
कहत तुकड्या ईश-चिंतनमें, समाधी हो मिली ।।4।।