छोड़कर चलता मुसाफिर, अन्तमें दिलदार की

(तर्ज : मानले कहना हमारा...)
छोड़कर चलता मुसाफिर, अन्तमें दिलदार की ।।टेक।।
रिश्तेको बेहद किया था, मस्तसे दूरी लिया था ।
चोरको गठडी दिया था, खूब   दोस्ती    यारकी ।।१।।
धन-अटारी को कमाया, शौकसे जगमें  गमाया ।
दिल विषयमें जा रमाया, फिर भुले हुशियारकी ।।२।।
जोरु-लडके और मैना, मोहके बस करत चैना।
अंतमें अंधा यह ऐना, गति कहाँ भव- पारकी ? ।।३।।
कहत तुकड्या जान प्यारे ! धर गुरूका ध्यान प्यारे ! ।
पार कर सब आस जा रे ! दृष्टि लेकर सार   की ।।४।।