किसे ध्याऊँ अभी तुमबिन हरी ?

(तर्ज : हरिचरण बिना सुख नाही रे... )
किसे ध्याऊँ अभी तुमबिन हरी ?
बिन हरी ? नहीं चैन पुरी ।।टेक।।
घोर पडा बडे नीच करम का ।
देखतही माया दे झोंका ।।
चोरनकी   सारी   नगरी । किसे ० ।।१।।
बंध पडा निज कर्मन के घर ।
आये लुटेरे माल लिया भर ।।
होत नजर अंधी - बहिरी । किसे ० ।।२।।
धर्म - नीतिसे भ्रष्ट हुआ जी।
डुबा सब  काममें  जिवाजी ।।
मान गया, मतिया बिखरी। किसे ० ।।३।।
कहत तुकड्या तूहि  सहोदर।
क्यों न रहा फिर शांत सभी घर ?
लूटनको    आयी   ठगरी । किसे ० ।।४।।