जिगरको खैंचकर मेरे, मुझे कुदरत भुलाती है ।

( तर्ज : अगर है शौक मिलनेका... )
जिगरको खैंचकर मेरे, मुझे कुदरत भुलाती है ।
अकूबत क्यों न पाता है ? करम तनको झुलाती है ।।टेक।।
साज बहिरंग ले अपना, अंतरंगमें नही स्व-पना ।
भुला करके झुला सपना, विषय पाँचो डुलाती  हैं ।।१।।
अनित्य औ नित्यको छोड़ा, मचाया द्वैतका घोडा  
खुले कैसा अभी जोडा, नगर- तन को रुलाती  है ।।२।।
नहीं जल्लाल को मारा, साथमें क्रोधमद धारा ।
हरीका रूप है न्यारा, न जाने   विष   पिलाती  है ।।३।।
कहे तुकड्या सुनो भाई ! सच्चिदानंद सुखदाई ।
वही तो मस्त है साई, अलख अविनाश जाती है ।।४।।