सुन भवसें कोइ न सतिया है
(तर्ज : दर्शनबिन जियरा तरसे रे... )
सुन भवसें कोइ न सतिया है ।।टेक।।
सोचसमझ नर! द्रयपन सब हर ।
निजरूपको समर, चरणकमल धर ।
आखिरमें सुखगतिया है ।।१।।
क्या जगमें सुख ? आखिर में दुख ।
नहि उजला मुख, अब हरले रूख ।
ईश्वर एकहि पतिया है ।।२।।
सब धन लूटत, तबतक जूटत ।
धन जब छूटत, हरकोई रूठत ।
भगत - संगत निज रतिया है ।।३।।
हरि भज सुखकर, छोड विषय नर !
भवसागर तर, जन्ममरण हर ।
कहे तुकड्या फुले छतिया है ।।४।।