हुशारी रखो, तन मंदर भाई
(तर्ज ; गुरुको दे खो अपने घटमाही....)
हुशारी रखो, तन मंदर भाई l पुण्यसे तुझे पाई ।।टेक।।
करो वस्ताद, पास खड़ा साई । देख मंदरकि चतुराई ।।
उलट नैनोंको, छोड़ द्वैत भाई! कहाँकी रही दुजी मायी ?
देखले घटमें, सब इसमें आई । सुझाऊँ तुझे चित्त लाई ।।
ख्याल दे इधर, मार्ग अब सुधर, फिर-फिरसे मिलन नाही । बहत पुण्यसे ।।१।।
पंचतत्वसे बना महल प्यारा । उसीसे मालिक है न्यारा ।।
सप्त चक्रोंका अंदर उजियारा। नहीं है चाँद-सुरज - तारा ।।
जडावट जडी, कहू क्या बडी, बावन धुन गाई | बहुत पुण्यसे ।।२।।
कोठरी रखी बहत्तरहि सारी । कील तीनसौ साठ धारी ।।
सप्त हौदोंका जल गहिरा भारी । अठाईस गज ऊँची प्यारी ।।
किया जब खड़ा, ऊँची बारदारी । उसीमें बगीचेकी क्यारी ।।
रंग - रंगोंके, फूल सब नीके, तोडनकों मायी । बहत पुण्यसे ।।३।।
द्वारापर खडा, चौघडा सुने आई । अजब रंगकी तऱ्हा पायी ।।
मौज जब आती, बैकुंठ उतर जाई । चले नित माला घटमाँही ।
ऊपर श्रीगुरु, अजि ! रूपरंग नाही । शून्यमें शून्य मिला भाई !
फेर क्या रहा ? तुकड्या तहाँ - गुरुचरण ध्याई । बहुत पुण्यसे ।।४।।