कहे पराशर याज्ञवल्क्यसे

(तर्ज : हरिका नाम सुमर नर... )
कहे पराशर याज्ञवल्क्यसे - प्यारे ! क्या रूप है तेरा ?
उसे छोडके पूरक - कुंभक - रेचकमें  धरता डेरा ।।टेक।।
याज्ञवल्क्य वह कहे - सुनोजी ! मै न आपरूपको जानूँ ।
कौन कहाँका आया यहाँपे ? आप कहे फिर वहि छानूँ ।।
योगयागमें उमर गुजारी, आसन - साधनको मानूँ ।
ईश्वरका  नित ध्यान धरूँ मै, उसको हरदमही वानूँ ।।
पद्मासन और सिध्दासन में, डुल रहता हूँ धर ध्यानू ।
जप-तपमें अरू नेमधर्ममें, सीखा गुरूसे गुरू-ग्यानू ।।
कहे पराशर आज जानले, वक्त न फिर मिलती चेरा ।
उसे छोडके पूरक-कुंभक०।।१।।
याज्ञवल्क्यसे कहे पराशर - योगयागको क्यों करता ?
योग कौन करता है सोचो, जन्ममरण-दुख क्यों धरता ?
अस्ति-भाति-प्रिय रूप सच्चिदानंद तूहि क्यों ना स्मरता ?
आपरूपको क्यों छोड़ा है ? करके भवसागर गिरता ।।
देही नही तू खास देहिया, इसी बातको नहि धरता ।
अभिमानोंसे चला भटकता, करके भव यह नहि तरता ।।
विज्ञानी हो परोक्ष हरके, फेर चुके तनका फेरा ।
उसे छोडके पूरक-कूंभक०।।२।।
याज्ञवल्क्य वह कहे - पराशर ! क्या छोडू करना मनका ?
मन यह ईश्वररूप बना अब, है न ख्याल मुझको तनका ।।
पापपुण्य सब हरा श्रवणसे, स्वस्थ हुआ मनका फनका ।
देहीमें मरगयी कल्पना, अमर बना मन वह मनका ।।
जन्म मरण अब है न सुनो तुम, छुट पडा मल साधनका ।
आप-आपमें मिला, बिसारा ख्याल सभी यह मीलनका ।।
कहता तुकड्या परोक्ष धरके, हरके अपरोक्षहि घेरा ।
उसे छोडके पूरक-कुभक ०।।३।।