ईश्वर ! तुम्हारी कुदरत, दुनियामें छा रही है

(तर्ज : गजल ताल तीन)
ईश्वर ! तुम्हारी कुदरत, दुनियामें छा रही है ।
कई हर तरहकी मूरत, नजरोमें आ रही  है ।।टेक।।
कई होगये दिवाने, कई बन गये सयाने ।
हर एक जीवितोंमें, ज्योती समा रही   है ।।१।।
सब कर्मसे नियारे, दिखते हैं दूज प्यारे ! ।
पर एककी उजारी, घट-घटमें भा रही है ।।२।।
आशक कहाँ बनाये, माशुक कहाँ दिखाये ।
कहीं रोशनी फुवारी, बदली गिरा रही है  ।।३।।
कई कोटि ये बनाये, कई मिट्टीमें मिलाये ।
तेरा न अंत पाये, श्रुति - बेद गा  रही   हैे ।।४।।
लाखोंमें यार कोई, तेरी ख़ुदीको पाई ।
तुकड्याकी आँख योंही, भीतर बता रही है ।।५ ।।