उजागर ! सोचता क्या है ?
(तर्ज : अगर है शौक मिलने का ...)
उजागर ! सोचता क्या है ? लगी सब आग घरवाको ।
जली पूंजी खजानेकी, नहीं कुछ ख्यालही ताको ।।टेक।।
नगरको छोडके अपने, कहाँ परदेश आया है ?
चोर सब माल खा बैठे, फँसाया संगसे जी को ।।१।।
भरोसा है नहीं कुछभी, हुई सब राख दर्गेकी ।
पूछ जाकर हुशारोसे, बयाना देख धर वाको ।।२।।
कहे तुकड्या नहीं फिरसे, मिले ऐसी जूदी बारी ।
ऊठ चल दौर भीतरमें, उठाले माल- जरवाकों ।।३।।