ऐसा भेख चढादो मुझको, फेर
(तर्ज : हर भज हर भज हिरा परखले... )
ऐसा भेख चढादो मुझको, फेर पलट नहीं आऊँगा ।
सुरत उजार चढी पवनामें, दुबिधा दूर मिटाऊँगा ।।टेक।।
अगम -निगमकी अलफी करके, हरहर भीख मँगाऊँगा ।
षड़रिपु जला दया-कुँडियामें, हरदम भस्म रमाऊँगा ।।१।।
विवेकरूप एक चिमटा करमें , सुरती अलख जगाऊँगा ।
ज्ञान-तुँबडिया करमें धरके, हर जग प्रेम पिलाऊँगा ।।२।।
पंच विषयकी पाँव खडाऊ, चटपट गाना गाऊँगा ।
अनहद तार तँबूरा लेकर, सुन्न शिखर जगवाऊँगा ।।३।।
सप्त चक्रकी माला तनमों, सदगुरु नाम रिझाऊँगा ।
अजपा चिलम गुडाकू गमका, हरदम पीते जाऊँगा ।।४।।
जहाँपर संत बिराज रहे है, वहाँपर ठौर ठराऊँगा।
तुकड्या भेख बिना न्यारा है, ऐसा भेख मिलाऊँगा ।।५।।