काहेको प्यारे ! भटकत फिरता ?

(तर्ज : हर भज हर भज हिरा परखले... )
काहेको प्यारे ! भटकत फिरता ? गुरुचरणबिन गति नाही ।
सभी ढँढोले मारग जाकर, आखिर गुरुपदको   पाई ।।टेक।।
जप तप साधन कितना कीन्हा, नहिं मनको शांती आयी ।
पुराण-पोथी बाच ढंढोले, नहिं रोके   मनकों   भाई ! ।।१।।
जंगल सागर घुमता फिरता, चारों देश भुला भाई! ।
गुरुग्यान बिन मोक्ष न पावे, सबका अनुभव है योंही ।।२।।
पढते पढते मरे कई नर, आतम - ज्योत नहीं पायी ।
तुकड्यादास कहे गुरुकिरपा, पहुँचावे सतसुखमाँही ।।३।।