क्या तुमको समजाऊँ संतो !

(तर्ज : अपने आतम के चिन्तन में...)
क्या तुमको समजाऊँ संतो ! क्या तुमको समझाऊँ जी ? ।।टेक।।
दानऊँ भाव जगतमें बाँधे, एक भीतर उपराऊ जी।
जो कोई भीतर साधन साधे, उन्हिके पद अभिलाऊँ जी ।।१।।
वह तो खास जगतसे न्यारे, तुम तो कनक-मँगाऊ जी ।
वह तो साधत पद निरबाना, तुम तो आस - पुराऊ जी ! ।।२।।
वह सहजासन साधन बाँधे, तुम तो नींद-चढाऊ जी! ।
वह जाने एक आतम ग्याना, तुमको खबर घराऊ   जी ! ।।३।।
वह कर्तेपन से नहीं बाँधे, तुम तो जीव बँधाऊ जी ।
वह तो अलख जगे जगमाँही, तुकड्यादास दुखाऊ जी !।।४।।