कै समझाऊँ तुम्हार ? अविगत
(तर्ज : ऐसे दिवानेको देखा भैया...)
कै समझाऊँ तुम्हार ? अविगत कै समझाऊँ तुम्हार ? ।।टेक।।
शास्तर-बेद-पुराना पढते, मीठी बात ख़ुमार ।
कुछभी ख्याल नहीं अंदरमें, जमका बैठे मार ।।१।।
आतमग्यान निराला भाई ! वहाँ नहिं शब्द पुकार ।
बातनवाले लटके बाहर, बिरला पावे पार ।।२।।
अगम अगोचर निगमसे भीतर, नहीं उनको घरबार।
तुम तो घरके बाँधे बैठे, के जाओगे पार ? ।।३।।
उलट रीत आतमकी भाई! क्या गाऊँ कथवार ?
मैं कुछ लायक नहीं कहने के, आपही करउं बिचार ।।४।।
तुम्हरे घरको तुम नहीं जानो, क्या बोलूँ असवार ?
आदम -जन्म गमाय दिया फिर, पछताओगे यार ! ।।५।।
तुकड्यादास कहे निर्बाना, अविगत कहने - पार ।
आपही अपना गुरुपद देखो, टूटे काल गँवार ।।६।।