कबहूँ न पार भयी । पापीकी नैया

(तर्ज : ऐसे दिवानेको देखा भैया... )
कबहूँ न पार भयी । पापीकी नैया, कबहूँ न पार भयी ।।टेक।।
प्रेम -भजनमें  ईश्वरके गुण गावन याद नहीं ।
रात-दिवस निंदा मुख बोले, मूरख   लाज   गयी ।।१।।
संत-साधुसे लीन हुआ नहीं, कबहूँ न पूज दई ।
पुलिसको हाँजी कर - करके, हाथ जुडाय सही ।। २।।
मात-पिताको रोटी न देवे, तिरिया संग लई ।
दान-धर्मतो कछू नहीं जानत, विषयन आस रही ।।३।।
रंडीबाजी जूआ - दारू, खेलत मौज किई ।
कहता तुकड्या ऐसे नरको, नरक जगह ही  रही ।।४।।