साधूकी रीति उलट दरस दरसाय
(तर्ज : निरंजन पदकों साधु कोई पाता है...)
साधूकी रीति उलट दरस दरसाय ।।टेक।।
नहीं कुछ जानत बेद-पुराणा, नहीं गावे मनमाँय ।
मुरदेपनमें दुनिया देखे, रोतेही हँस जाय ।।१।।
नहीं माँगे कुछ धन दौलतको, धनही पेट समाय ।
धनका बाप धनैया देखा, हीरा - लाल छुपाय ।।२।।
नहीं भोगे परमारथ कोऊ, नहिं संसार कराय ।
दोनोंसे न्यारी रहनी है, अलख लखे नहि जाय ।।३।।
अंधेपन में काम चलावे, थूटे मृदंग बजाय ।
तुकड्यादास उन्हें कर जोरे, जो निज ब्रह्म समाय ।।४।।