खैंचके निकारो मुझको, नाथ !
(तर्ज : जिंदगी सुधार-बंदे ... )
खैंचके निकारो मुझको, नाथ ! मैं फैंसाया हूँ ।।टेक।।
तनरुपि यह नौका मेरी, नागनिने आके घेरी ।
नागनी बड़ी है जहरी, जहरसे कसाया हूँ ।।१।।
जबहि वह फुत्कारा डारे, भक्तिरुप फुलको जारे ।
विकारी उन्हें कर डारे, आसजल धँसाया हूँ।।२।।
तनरुपि यह नौका मेरी, भोगमें फँसाई सारी ।
शरण आ पडा हूँ तेरी, नागसे लसाया हूँ ।।३।।
जहरसे निकारो साँई ! अब न सहन होता भाई ।
तुकड्या चरणको पाई, क्यों न फिर हँसाया हूँ ?।।४।।