ऊठ गड़ी ! जाग जरा, वक्त क्यों गमाता है ?
(तर्ज : जिंदगी सुधार-बंदे ...)
ऊठ गड़ी ! जाग जरा, वक्त क्यों गमाता है ?
बीत गई उमरी सारी, श्वास उडा जाता है ।।टेक।।
जाग पडे जो जो कोई, फेर फेर आना नाही ।
काल-मार खाना नाही, नींदमे फँसाता है ।।१।।
चोर का बजार सारा, काम क्रोध मारे मारा ।
विषयोंकी धारामाँही और बहा जाता है ।।२।।
साधुसंत-संग अभी कर, नाम प्रभूका वह लेकर ।
ऊँची जगह जाय बसो, काहे गोते खाता है ? ।।३।।
मानुजकी देह खोई, फेर वक्त कौन पाई ?
तुकड्या तो सुनी सुनाई, साथियों ! सुनाता है ।।४।।