कहे जनक सुनो शुक भाई !

(तर्ज : ना छेडो गालि देऊंगी भरने दें घागरी .... )
कहे जनक सुनो शुक भाई ! घटमें साँई गोरहा है ।।टेक।।
जबतलक अहं नहि जाना, तबतलक झूठ भरमाना ।
आना वैसा चलजाना, जनना मरना भो रहा हैं ।।१।।
मोहे कौन जिवनमें लाया, नहिं जाना फिर पछताया ।
आखिरमें गोता खाया, बिरथा काया खो रहा है ।।२।।
नहिं आत्मरंग मन कीन्हा, सब बिरथा जगमें जीना ।
जप तपसे कुछ नहिं लीन्हा, आकुल सीना हो रहा है ।।३।।
निज-नैन पता पावेगा, फिर सोहं चित लावेगा ।
ओहं सब मिट जावेगा, तुकड्या धागा थो रहा है ।।४।।