वहि है माया प्यारे ! तूने काया

(तर्ज : सदा रहो अलमस्त ...)
वहि है माया प्यारे ! तूने काया क्यों समझा रे ।।टेक।।
माया काया-रूप बनी जब, जगत नजरमें आवे ।
नहि तो कुछ नहिं काया, माया, सब चैतन्य समावे ।।१।।
अनंतरंगी सबकी संगी, जिसे त्रिगूण कहावे ।
ब्रह्मा विष्णु रुद्र इनके तन, मायासे बतलावे ।।२।।
जैसी खास भकाश उपरमें, ठग नैना चमकावे ।
पलमें है और पलमें नाहीं, चंचल रूप दिखावे ।।३।।
काया यह मायारूप सम, तू इनका करनेवाला ।
कहता तुकड्या साक्षी हो अब, जानो रूप निराला ।।४।।