जो प्रीतके घरको पाचुके है,

(तर्ज : सुनोरि आली गगनमहलसे... )
जो प्रीतके घरको पाचुके है, सो रीत का डर खपा चुके है ।
कुफर कफरको दफा चुके है, दवा मोहब्बतकी खा चुके है ।।टेक।।
न कर्म धर्मोका बंध उनको, न भेखकी कुछ भी लालसा है ।
लडे हाए है जिगरसे अपने, उजरकी जूँ को सफा चुके है ।।१।।
न द्रोह करनेको फुरसदी है, न लोभ करनेको वक्त फावे ।
हुए दिवाने जो धुनमें उनकी, नशा उन्हीकीहि छा चुके है ।।२।।
न ख्याल तनके वजा-वजूका, न देखे दिनको न रैन जिनको ।
वह दास तुकड्या उन्हींका प्यारा, जो प्रीतसे लौ लगा चुके हैं ।।३।।