किसे मैं देखूँ बिना तुम्हारे ?

(तर्ज : सुनोरि आली गगनमहलसे...)
किसे मैं देखूँ बिना तुम्हारे ? औरन के संग रीत नहीं है ।
न ज्ञान मुझमें किसे सुनाऊँ, अगर कहूँ तो प्रीत नहीं है ।।टेक।। 
यह आस मनमें लगी हुई है, प्रभू चरणपे जगी हुई है ।
दिदार देना खुशी तुम्हारी, प्रीतमके संग जीद नहीं है ।।१।।
लगे रहेंगे वह नाम पीकर, जगे रहेंगे सबर-शुकरमें ।
न चाह राखूँ जगत्‌की दिलमें, कामनके घर नीत नहीं है ।।२।। 
जहाँ फिराऊँ नजरको अपनी, सभी लगे हैं अपनमें सारे ।
न कोउ किसपर रहम करेंगे, यह बात मोमन होत नही है ।।३।। 
वह दास तुकड्याको आस तेरी, भली समझ या बुरी रहे फिर ।
न कोउ चालक रहा हमारा, बिना प्रभू एक मीत नहीं है ।।४।।