जब तपते लोहपे प्रेम करो, तब जलने से क्यों डरते हो ?
(हरिगीतिका छन्द)
जब तपते लोहपे प्रेम करो, तब जलने से क्यों डरते हो ?
जब पर्वत लाँघ कि याद करो, तब पैर दुखे क्यों कहते हों ?
जब सागर में तरना हैं तुम्हें, बडि लाटसे क्यों पिछु सरते हों ?
भगवान् कि यादमें बसना है, विषयोंमे क्यो मरमरते हो ।। 1।।
प्रभुसे किसिको मोहब्बत हो लगी, अनुराग से रोना पडता है।
प्रीतीका निभाना मुश्किल है, अँसुओंसे मुंह धोना पडता है।।
दुनिया की जो नीति-रीति सभी, बदनाम हो खोना पडता है।
वहि चढता है प्रभु-प्रेम -नगर, जो सब विषयोंसे लडता है।।2॥
तुम तो प्रभू नामको रटते हों, पर अपना काम न छँटते हॉ।
इस माया -मोहकी झंझटको, एक पलभी नहीं उछडते हों।।
सच्चा तुम अपना दिल खोलो, तुम्हें प्रभू चहे की माया है।
प्रभु मायाके न गुलाम रहे, क्यों उलटी राह जमाया है?॥3॥
क्यों अँचवन भर जल झोकत है,प्रभू न्हाये तो तुम नहलावोगे क्या ?
क्यों चिटिका भोग लगावत है, प्रभू खाये तो तुम खिलवावोगे कया ?
क्यों क्षणभर प्रभुका नाम जपे,प्रभू आये तो तुम रह जावोगे क्या ?
यह भूल फाकमें क्या है रखा,प्रभू मांगे सो तुम दिलवावोगे क्या ? ।।4।।
हे जीव तु विषयों में है लगा, तुझे राम लागे ना श्याम लगे।
ना धर्म लगे, सत्कर्म लगे; तुझे काम लगे ना हराम लगे।।
नहिं तो सच कहकर बोल दे,तुकड्या तू प्रभू-पदको चाहता है?
जिस क्षणभि तुझे यह चाह गे, उस क्षणहि प्रभू वहाँ रहता है।।5॥
पर यह व्यभिचारी याद न हो, क्षण कामभि हो, क्षण रामभि हो।
आरामभि हो, हरामभि हो, कुछ माया हो कुछ श्यामभि हो।।
कमजोर है तू सतसंगमें जा, वह रँग छगाले मस्ती का।
तुकड्या कहे, तब क्या दूर तुझे, तुझे पता चले तेरि हस्ती का।।6।।