अरे मन ! नित रह अंतर जागा
(तर्ज : मोसम कौनन कुटिल खल कामी...)
अरे मन ! नित रह अंतर जागा, तोड जगतका धागा ।।टेक।।
जहँ जहँँ नैन पड़े सब तेरे, मान प्रभू - संग लागा ।
तोड़ उपाध काम - विषयनके, रहे सभीसे जागा ।।१।।
अन्तर - तार कभू नहिं छोड़े, चढे भजनके रंगा ।
सुख - दुःखनको मार तड़ाखे, रहे स्वरुपके संगा ।।२।।
नाभिकमलसे उठि एक ज्वाला, बाहरकी गत त्यागा ।
उसिसे ध्यान चढ़ाले अपना, काम न जावे भंगा ।।३।।
दृढ़ निश्चय कर, ध्यास लगाकर, मत भूले केसी अंगा ।
तुकड्यादास तभी कुछ साधे, कालनका डर भागा ।।४।।