काहेको बन बन बिचरत भाई !
(तर्ज : मोसम कौनन कुटिल खल कामी.... )
काहेको बन बन बिचरत भाई ! घट बिच तेरो साँई ।।टेक।।
मनको काम अचल धुम घेरो, क्या तुझको फिरवाई ।
अंतर जाग बिवेक सुधारो, मनही ज्ञान बताई ।।१।।
सत् संतन - सँग प्रेम कराकर, निर्भय मुद्रा पाई ।
जहाँ देखे वहाँ ईश्वर - चर्चा, दूजा नजर न आई ।।२।।
मुझमें राम राममें मैं हूँ यह दिल भाव ठराई ।
काम सकाम धाम नहिं ग्रामा, जहाँ वहाँ ईश्वर गाई ।।३।।
निंदा करूँ न किसकी तारिफ, बात वही मनमाँही ।
तुकड्या देह गेह भूलेपर, निर्भय पदकों पाई ।।४।।