अहो प्रभु ! तुमहीसे मन राजी

(तर्ज : मोसम कौनन कुटिल खल कामी... )
अहो प्रभु ! तुमहीसे मन राजी, और हमें नाराजी ।।टेक।।
जप तप साधन नमाज रोजा, कर-करके मति साजी ।
काजी मुल्ला पढ़ते पढ़ते, अंत बने है पाजी ।।१।।
बुतखाने और काबे तीरथ, सब पैसोंके खाजी ।
बेद पुराण कुराना कलमें, करे तुम्हारी हाँजी ।।२।।
बैरागी संन्यासी कितने, बढे बने निर्लाजी ।
भक्ति झरा कोइ बिरला जाने, सब ये तो कोकाजी ।।३।।
पीर-पैगम्बर वलि-अवलिया, मस्त बने मनमाँ जी ! ।
खबर नहीं दुनियाकी उनको, आपहि डोले   गाजी ।।४।।
हम तो नमक-हरामहि बैठे, हमसे सब नाराजी ।
तुकड्यादास कहे करुणा कर, भूल गये सारा जी ! ।।५।।