रे ! राह रहमकी बिगड़ी

(तर्ज : गुजरान करी गरिबीमें बाबा ! ...)
रे ! राह रहमकी बिगड़ी । क्‍या गाता मुखसे जिगड़ी ? ।।टेक।।
मन माने से सो कहता मुंहसे, नजर तालमों अकड़ी ।
रामभजनमें खयाल नहीं है, फँसी जाल में   मकड़ी ।।१।।
सु-कर्मका तो पता नहीं है, नहीं धरमकी लकड़ी ।
क्याहि लड़ेगा जमराजासे ? अंतकाल तन  पकड़ी ।।२।।
पोथि पुराणा सब कुछ देखे, अटकी घरमें संकडी ।
बहिर्मुखीका संग छुटा,   लगी    पिछाड़ी    फकड़ी ।।३।।
मान कहीं कुछ सोच कियाकर, जपले नाम हरघडी ।
तुकड्यादास कहे प्रभुसुमरण, मुक्त करे सब बिगड़ी ।।४।।