रे मन ! रँगसे नहिं रँग जाना

(तर्ज : सुभांन तेरी कुदरतकी है शान... )
रे मन ! रँगसे नहिं रँग जाना ।।टेक।।
ये सब रंग रंगीली माया, तू  मत  होय   दिवाना ।।१।।
कइ सो रंग लगे दरगनको, एकसो एक  नवीना ।।२।।
शुभ्रही रक्त पीत घन नीला, इनसो पार निशाना ।।३।।
जहाँपर भेद उठ्यो नहिं भेदा, वहि बिच जाय समाना ।।४।।
रहत अखंड ज्योत निशि बासर, कहे तुकड्या अजमाना ।।५।।