अजि ! क्यों कृपण बने महाराज !

(तर्ज : सुभान तेरी कुदरतकी है शान...)
अजि ! क्यों कृपण बने महाराज ! ।।टेक।।
करुणाघन करुणासागर हो, कर करूणा यदुराज ! ।।१।।
बोझ बडो है सिरपर मेरे, दूर    करो    यह    काज ।।२।।
दीन - पतिनके पावन तुम हो, कटवो जन्म - जहाज ।।३।।
नहिं माँगत कछु धनसंपतको, तुकड्याकी धर लाज ।।४।।