हे यार ! हमने वह पंथ देखा

     (छंद)
हे यार ! हमने वह पंथ देखा, खुशीकी जिसमें लगी लगन ।
न जिसमें जन थे न जिसमें मन था, खुदहिकि धुनमें रहे मगन ।।टेक।।
न इंद्रियोंका है थाक जिसमें, अलग पड़ा है रहा बदन ।
न बुध्दियोंकी है पहूँच वहाँपे, न नैनहुँका चले रूदन ।।१।।
न रैन थी और न दिनहि था, जिस जगहमें हरदम किया वतन ।
न शैर था और न शोर था, जिस वतनको हरदम किया जतन ।।२।।
न जिसमें परदा मरन-जनमका, यह ऐसि झाडी रही सघन ।
जहाँपे बरखा चले लहरकी, खुदहिसे फुलता है ज्ञान बन ।।३।।
वह ज्ञान-बनमें टहलता जोगी, जहाँपे नहिं मैं - तू की रहम ।
लगाया जीवनका भस्म जिसने, बना है आदमकाही अदम ।।४।।
जो ख्याल मारे वह दर्गाहोंसे, तो प्रेमकी फूँ चले सनन ।
कई जबाओंको तेज देकर, अलग रहे जब करे रहन ।।५।।
जो शानशाहका बना है मंजील, जहाँपे उनका लगे किरण ।
वहाँसे चेता वह विश्व सारा, जिसीके तेजोंका है जरन ।।६।।
वह दास तुकड्या उसीका प्यारा, जो चेत चेते वह प्रेम -बन ।
बिना गुरुके न पहुँच सकता, उस पंथका नित करो मनन ।।७।।
                                         (-- वरखेड़)