सम्हल सम्हल के खेल पियारे !

      (छंद)
सम्हल सम्हल के खेल पियारे ! नहिं तो गोता खावेगा ।
जनम -मरनकी ठोकर लागे, जम -घर रोता जावेगा ।।टेक।।
धृव बालक जब खेल खिलाया, अमर हुआ अपनी धुनमें ।
जनम जनम अब धोखा नाही, मस्त हुआ जगके रणमें ।।
भारि खेल प्रल्हाद उठाया, जीतहि ली बाजू पलमें ।
नरसिंहरूप प्रगट करवाकर, लीन हुआ -प्रभुके स्थलमें ।।
इसी खेलसे तरा अजामिल, संत-संगमें न्हावेगा ।
टूट जाय संसार-चक्र यह, भवसागर तर जावेगा ।।१।।
द्रौपदि खेल हुआ निर्बाना, चीर बढ़ाये महलोंमे ।
टूट गये जंजीर सभीके, कृष्ण हआ प्रतिपालोंमे ।।
भक्त सुदामा खेल जमाया, ईश्वर-नाम कमालोंमे ।
कंचन-धाम दिया रहनेको, टूट गये दुख हालोंमे ।।
भवसागरका खेल बिकट है, बिरला पार सिधावेगा ।
साधगयी तो भला हुआ, नहि साध गयी पछतावेगा ।।२।।
खेल बनाया कबीरजीने, तानेको बुनते बुनते ।
लगे रहे अलमस्त निशामें, पार हुए धुनते धुनते ।।
कमालने संतनको भोजन दिया, सीस रिझवाने में ।
एकसे एक सवाई भाई ! ईश्वरके गुण  गानेमें ।।
बिना ज्ञान नहिं शोध मिलेगा, नहिं तो भटका पावेगा ।
करम धरममें चूक गया तो, नाहक डण्डा खावेगा ।।३।।
तुकाराम और नामा दर्जी, हुए पार खेलानेमें । 
अजब भक्त ईश्वरके भाई ! हुए इसीहि जमानेमें ।।
यह जग-खेला बिकट गडीरे ! चोर खडे सडकानेमें ।
नहि जाने दे निशान तेरा, मशहुर है अजमाने में ।।
तुकड्यादास कहे कुछ साधो, नहिंतो भीक मंगानेमें ।
याद करो कुछ अपने सुखकी, अंतकाल पछतानेमें ।।४।।