सुना हूँ नूर मैं तेरा, अलख अविनाश

(तर्ज: मुझे क्या काम दुनियासे..... )
सुना हूँ नूर मैं तेरा, अलख अविनाश घटमाँही ।
ढूँढे शाहीर कइं तुमको, पता तेरा जरा नाही ।।टेक।।
पास तो तू बसा है पर, नजर आता नही जलदी ।
न मारग है हमें मालुम,   वो   तेरा    घर    कहाँ     साँई ।।१।।
सोचते सोचते ही है, कि प्यारा किस तरह देखे ।
तो क्या तुमभी नही मिलते, अगर तुम में  है    जनताई  ।।२।।
नाथ ! तुम घटके उजियारे, तुम्हें तो सब नजर परता ।
दीन हम जैसियोंकी फिर, खबर   कैसे    तुम्हें    नाही ! ।।३।।
वो तुकड्यादास कहता है, क्या तुम हो जड अचेतन से ? ।
अगर नहि है, यह निश्चय तो, सुरत क्योंकर नजर नाही ! ।।४।।