स्वाधीन करो मनको अपने
(तर्ज : आनंद मनाओ हरदममें ... )
स्वाधीन करो मनको अपने । तब ग्यान मिले घटके घटमें ।।टेक।।
सत्संग धरो सतसे बिचरो, सतग्रंथ पढो अपने मुखसे ।
अति प्रेम लखो हरिका दिलसे, परकास पड़े मठके मठमें ।।१।।
कोई नाहक बन बन ढूँढत है, और मूँडत है अपने सरको ।
तुम लीन रहो हरिनाम कहो, कभु नाहि परो इस खटपठमें ।।२।।
कोई होम करे, पंचाग्नि धरे, हठयोग करे नदके तटमें ।
तुम ध्यान धरो, रँगमें बिचरो, तन लीन करो पटके पटमें ।।३।।
कोई जात हिमाचल ढूँढनको, सिर लेप लगाय त्रिपुंडनको ।
कहे तुकड्या बिरहमें रो उसके, तब अनुभव ग्यान मिले झटमें ।।४।।