कहो कौन तरे भव-जलमें ?

(तर्ज: कायाका पिंजरा डोले. . .)
कहो कौन तरे भव-जलमें ? सब हैं मनके आधिनमें ।।टेक।।
बडे ग्यान सुनाते जनको, पर चित्त चहे धन-धनको ।
सब भुले लोभके रँगमें, सब हैं०।।१।।
कई मर्द बने बतलाते, घर स्त्रीके मार सहाते ।
बाँधे जाते पलपलमें, सब हैं०।।२।।
कई सेवा -धर्म उठाते, पर कीरतकोहि चहाते ।
सब खोते सेवा   उसमें, सब हैं०।।३।।
कहे तुकड्या बिरला कोई, इन बातोंको नहिं पाई ।
वहि बसे प्रभू-पद क्षणमें, सब हैं०।।४।।