दिल जाग गया, रँग लाग गया
(तर्ज : सखि ! जादुगर गिरिधारी. ... )
दिल जाग गया, रँग लाग गया, मोहे कौन लगादी तारी ?
वा सद्गुरुकी बलिहारी ।।टेक।।
निर्मल बनमें अपनी तनमें, मन-मंदीर भुवनमें ।
देखा सहजासनमें झिलमिल, जागी ज्योति हमारी ।।१।।
कहिं तारे कहिं बिजली चमके, कहिं सुरजकी झाँकी ।
घनन घड्याल, झनन झाँजरिया, अनहदकी धुनकारी ।।२।।
अगम-निगमकी राह अनोखी, सोहंकी ललकारी ।
अमृत - धार त्रिकुटके ऊपर, पीवे भर भर झारी ।।३।।
घट-मदिरमें स्वर्ग- मृत्यु है, हैं बैकुंठ हमारी ।
तुकड्यादास कहे लखवाई, जिसने सुरति हमारी ।।४।।