ऐ श्यामसुंदर ! मत देखो इधर,
(तर्ज : सखि ! जादुगर गिरिधारी...)
ऐ श्यामसुंदर ! मत देखो इधर, सुधि जाति है भूक्ति हमारी !
तेरि आँखमें जादु मुरारी ! ।।टेक।।
मोरमुकुट पीतांबर शोभे, कुंडलकी छबि न्यारी ।
अधर धरी मुरलीकी पेरी, मीठे सुर झनकारी ।।१।।
इस मुरलीने कुंजनबनकी, गौओंकी, सुध हारी ।
दधिया बेचत गोपी भूली, कृष्ण कृष्ण कहे सारी ।।२।।
सुर, नर, मुनि सब देख रूप यह, कर्म धर्म सब हारी ।
तुम्हरी रास-लिला देखनको, शंकर हो गये छोरी ।।३।।
तुकड्यादास कहे जो तुमको, लखे लगाकर तारी ।
उसे कृष्णरूप जिधर उधरमें, मैं- तू भेद बिसारी ।।४।।