दंड कमंडल, ऊँच वक्षस्थल, तीन शीर अनुरागी
(तर्ज : सखि ! जादुगर गिरिधारी... )
दंड कमंडल, ऊँच वक्षस्थल, तीन शीर अनुरागी ।
गुरु दत्तदिगंबर योगी ।।टेक।।
शंख-चक्र अरू गदा बिराजे, और त्रिशूल अनोखा ।
कसे लँगोटा, झोली हरदम, बहिररंगसे त्यागी ।।१।।
साथ श्वान अरु गौएँ जिनके, रूप धरे बालकका ।
मृग-चर्मासन डारके आसन, सहजसमाधी लागी ।।२।।
कहीं जान्हवी न्हावे, भिक्षा माँगे कोल्हापुरमें ।
निद्रा माहुरमठपर साधे, रहन सदाहि विरागी ।।३।।
तुकड्यादास कहे ग्यानीके, मुकुटमणीवर साजे ।
उनको पावन करे हमेशा, जिनकी प्रीती जागी ।।४।।