हे नाथ ! अनाथनकी सुन ले
(तर्ज : सखि ! जादुगर गिरिधारी.... )
हे नाथ ! अनाथनकी सुन ले, हम आये द्वार भिखारी ।
दो दर्शन अब गिरिधारी ! ।।टेक।।
सभी जनमका जिवन वृथा है, जबतक तुम्हें न पाया ।
क्यों तुम कैसे मिलो हमें ? यह याद सताती भारी ।।१।।
मोरमुकुट कुंडलकी शोभा, गले बैजंती प्यारी ।
अधर धराकर मुरली अपनी, अरमा कर दे पुरी ।।२।।
श्याम ! तुम्हारा रंग नैनसे, ना जावे अब मेरी ।
कृष्ण ध्यान और कृष्ण प्राण है, तन-मन कृष्ण हमारी ।।३।।
यह संसार जालका परदा, दूर करो अब मेरा ।
समय गयी फिर नहि आवेगी, नाथके दर्शकी बारी ।।४।।
जगमें आकर धनी न जाना, इससे पाप न मोटा ।
तुकड्यादास कहे चमकाओ, अपनी सुरत-उजारी ।।५।।