अजि मोहन ! मुझको, मोहकि मोह बिसारी

(तर्ज : मोहनकी बंसी, बाज रही...)
अजि मोहन ! मुझको, मोहकि मोह बिसारी ।।टेक।।
सुधबुध भूली या दुनियाकी, लग गइ श्यामकि तारी ।।१।।
मैं समझी थी सुख जा घरमें, वा घर सारी अँधेरी ।।२।।
दीप-शिखापर जलत पतंगा, वेसी गति भइ मोरी ।।३।।
तुकड्यादास कहे उसहीसे, हम भये मस्त भिखारी ।।४।।