जनम -जनम के हैं दुखियारे, अब न दुखाओ मनको
(तर्ज: थकले रे नन्दलाला....)
जनम -जनम के हैं दुखियारे, अब न दुखाओ मनको -
अब न दुखाओ मनको ! टेक ॥।
कहिं कीटक बनकर पग-नीचे, जान गमायी हमने ।
कहीं श्वान हाथी और घोडे, बन दुख पाया हमने ।।१।।
कहीं अजगर जंबूक, नेवला, बन भूमिगत था बाँसा ।
जहाँ दिखे वहिं मार पडा था, ऐसा हुआ तमासा ! ।।२।।
अब तो आये मानव बनकर, कुछ थे भाग हमारे ।
गरचे अब भी नहिं प्रभु पाये,कालके चक्र सँवारे ! ।।३।।
इस कारण हम शरण प्रभूको, तारो नाथ हमारे ! ।
तुकड्यादास नहीं गति फिरसे, मानव जनम बिसारे ।।४।।