तुकड्यादास
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हरिबिन जीऊँ मैं कैसी ?
(तर्ज : अब दिन बीतते नाहीं....)
हरिबिन जीऊँ मैं कैसी ? ।।टेक।।
उसबिन सूनो महल - अटारी, भयो जान परदेशी ।।१।।
तन - सिनगार धूलसम भासे, बनमें कुलटा जैसी ।।२।।
तुकड्यादास दास हरि ! करिए, मिलिए गले अविनाशी ।।३।।