हरि ! काहेको बंसि बजाते हो ?
(तर्ज : जोगन खोजन निकली है... )
हरि ! काहेको बंसि बजाते हो ? चित अपनेमें बहलाते हो ! ।।टेक।।
तुम्हरी बंसि भरी जादूसे, मन बिछुडाती है घरसे ।
हम नहि सुनते इस डरसे, क्यों अपना हक्क बताते हो ? ।।१।।
गर करना है पुरे दिवाने, कौल करार करो हमसे ।
नहि छोडेंगे फिर पकडे तो, क्योंकर यह न जताते हो ? ।।२।।
तुम्हरी बंसीने लाखोंकी, गौएँ गोप भुलाई हैं ।
छोड गये फिर मथुरा उनको, हमसे काहे छुपाते हो ? ।।३।।
प्रीत करो तो रीत निभाओ, अपना मोह बताकरके ।
तुकड्यादास कहे हमसे अब, क्योंकर भेद रखाते हो ? ।।४।।