खिवैय्या तेरी बाग ढील दे रही है ।
(तर्ज : जर्मी चल रही, आसमाँ चल रहा है... )
खिवैय्या तेरी बाग ढील दे रही हैं ।
इसीमें तो जनताभि घबडा गयी है ।।टेका।।
नहिं जानता तू गुन्हेगारियोंको ।
न मदिरा पियेको, न उन जारिओंको ।।
ये सरपे चढे क्या, मजा आ रही है ।।१॥
शराबी कहीं ग्यान लेते जहाँका?
घुसखोरियों को अदब है कहाँका ?
तुझे तो लगा बस् ईमान यही है ! ।।२।।
अकल गुम गयी हो तो पुछ ले किसी से ।
ना बल भी रहा हो तो तप कर खुशीसे ।।
सुधर तेरि इज्जतपे डग आ रही है ।।३।।
अगर साधु होना है तो चल उतर जा।
सन्तों कि डोरी किसिसे सुधर जा ।
कहे दास तुकड्या, न देरी रही हैं ।।४।।